मण्डला। हर साल सरकारी स्कूलों की मरम्मत पर करोड़ो रूपए खर्च किए जाते हैं यह राशि स्कूल प्रबंधन के साथ सहायक आयुक्त आदिवासी कार्र्यालय, सर्व शिक्षा अभियान, जिला शिक्षा विभाग के माध्यम से भी खर्च की जाती है स्कूलों की देख-रेख सुधार लिपाई पुताई के साथ अन्य संसाधनों में पानी की तरह पैसा बहाया जाता है। लेकिन इस पैसे का उपयोग कम दूरूउपयोग ज्यादा होता है लिहाजा स्कूलों के हालात तो नही सुधरे लेकिन स्कूल सुधार के लिए तैनात किए गए ठेकेदार अधिकारी कर्मचारी इंजीनियर जरूर मालामाल हो गए।
हालात तस्वीरें बयां कर रहे है कहीं छत टपक रही है तो कहीं दिवारों में बड़ी-बड़ी दरारे आ गई हैं। यहीं नही स्कूल का लेंटर कब गिर जाए कोई भरोसा नही इसके बाद भी जबावदार अधिकारी तनिक भी ध्यान नही दे रहे है रोजाना जर्जर स्कूलों को लेकर सोशल मीडिया में स्कूलों के संबंध में कुछ न कुछ दिखाई देता है। एक ओर सरकार शिक्षा का अधिकार और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की बातें कर रही हैं वहीं दूसरी ओर मंडला जिले की जमीनी हकीकत इन वादों की पोल खोल रही है। जिले के सरकारी स्कूल शिक्षा के क्षेत्र में अंधकारमय तस्वीर पेश कर रहे हैं जहां न शिक्षक हैं, न भवन, और न ही बच्चों के लिए सुरक्षित और अनुकूल माहौल। शहर के स्कूलों में शिक्षकों की भरमार है,
वहीं ग्रामीण और दूरस्थ अंचलों के स्कूल पूरी तरह भगवान भरोसे चल रहे हैं। जिला मुख्यालय और उसके आसपास के स्कूलों में शिक्षकों की संख्या जरूरत से कहीं अधिक है, जबकि ग्रामीण क्षेत्रों में बच्चे एक शिक्षक के भरोसे हैं वो भी तब, जब स्कूल पर ताला न लटका हो। जिला शिक्षा विभाग से प्राप्त आंकड़े चौंकाने वाले हैं 89 स्कूलों में कोई भी शिक्षक पदस्थ नहीं है 362 स्कूल केवल एक शिक्षक के सहारे चल रहे हैं। 601 स्कूल जर्जर भवनों में संचालित हो रहे हैं। 37 स्कूलों के पास अपना भवन तक नहीं है।
शिक्षकों के मनमाने तबादले अब मंडला के बच्चों के भविष्य के साथ खिलवाड़ बन गए हैं। मंत्रियों की सिफारिश और रसूख के बल पर शिक्षकों को जिला मुख्यालय और पास के क्षेत्रों में पदस्थ कर दिया गया है। इसके चलते ग्रामीण इलाकों के स्कूलों में या तो शिक्षक नहीं हैं या फिर पढ़ाई का नाम मात्र है। जिन स्कूलों के पास भवन नहीं हैं उन्हें आंगनबाड़ी केंद्रों सामुदायिक भवनों या यहां तक कि किराए के निजी मकानों में चलाया जा रहा है। जिन स्कूलों के भवन हैं उनमें से सैकड़ों जर्जर हो चुके हैं कई भवनों को तो डिस्मेंटल (ध्वस्त) करने की सिफारिश तक हो चुकी है। इस स्थिति में ना केवल बच्चों की शिक्षा प्रभावित हो रही है बल्कि उनकी जान तक खतरे में है।
विश्वसनीय सूत्रों के अनुसार कई अधूरे भवनों को विभागीय पोर्टल पर पूर्ण और उपयोग में दिखा दिया गया है। अगर इस मामले की निष्पक्ष जांच कराई जाए, तो शिक्षा विभाग और जनजाति कार्य विभाग की कार्यप्रणाली पर कई बड़े घोटाले उजागर हो सकते हैं। शिक्षकों की भारी कमी के बावजूद कई शिक्षक जिला और ब्लॉक स्तर के कार्यालयों में संलग्न कर दिए गए हैं। शासन द्वारा कई बार स्पष्ट निर्देश दिए गए हैं कि शिक्षकों को केवल शिक्षण कार्य में ही लगाया जाए लेकिन इसके बावजूद जिम्मेदार अधिकारी चुप्पी साधे बैठे हैं।
सवाल उठता है कि क्या मंडला जिले के बच्चों की पढ़ाई का कोई मोल नहीं है क्या गरीब आदिवासी और ग्रामीण बच्चों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा देने की जिम्मेदारी सिर्फ कागजों तक सीमित है? कब जागेगा शिक्षा विभाग और जनजाति कार्य विभाग? क्या इन गड़बडिय़ों की उच्चस्तरीय जांच नहीं होनी चाहिए? जब तक हर गांव के स्कूल में योग्य शिक्षक, सुरक्षित भवन और बुनियादी सुविधाएं नहीं पहुंचेंगी, तब तक शिक्षा अधिकार कानून एक दिखावा ही रहेगा। शासन को अब चुप्पी नहीं ठोस कार्यवाही करनी होगी वरना मंडला के हजारों बच्चे शिक्षा के अधिकार से वंचित रहकर अंधकार की ओर धकेले जाते रहेंगे। बता दें कि मंडला जिले में शिक्षा अब मज़ाक बन गई है और बच्चों की जान खतरे में है वो स्कूल जो बच्चों के भविष्य की नींव होना चाहिए था अब खुद गिरने की कगार पर खड़ा है और बच्चे, किसी स्कूल में नहीं, गाँव के रंगमंच में पढ़ाई कर रहे हैं। वजह स्कूल की बिल्डिंग इतनी जर्जर है कि कभी भी हादसा हो सकता है।







